महोदय यशस शुक्ला जी,
शायद पहली बार आप ने मुझ से ज्योतिष संबंधी किसी प्रश्न के जवाब का अनुरोध किया है। हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि आप के मन में इस विषय को लेकर कोई दुविधा होगी; अपितु अक्सर विद्वान लोग आपस में एक-दूसरों के अनुभवों के और मंतव्यों के आदान-प्रदान करके विचार-सागर-मंथन करके नये संशोधन करते रहते हैं और इससे व्यापक रूप से समाज का भला ही होता है।
महोदय Anil Kumar Sharma ने बहुत अच्छा उत्तर दिया है। अपितु आप के अनुरोध को स्वीकार करते हुए, मैं भी अपना मंतव्य, अपने विचार, यहाँ व्यक्त कर रहा हूँ।
ज्योतिष शास्त्र में भविष्य फल कथन के लिए विभिन्न विधियाँ हैं - हस्तरेखा के अलावा, मस्तिष्क रेखाओं के माध्यम से भी भविष्य फल कथन हो सकता है। जन्म कुंडली और प्रश्न कुंडली से भी होता है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति अपने हाथ गँवा देता है या हाथों का ट्रांसप्लांट करवाता है तो भविष्य फलकथन के लिए दूसरे माध्यम भी अपना सकता है।
लेकिन अगर हस्तरेखा के विषय में अत्यधिक रूचि और जिज्ञासा हो और हाथों के ट्रांसप्लांट वाला किस्सा मिल जाए तो स्वाभाविक है कि उसमें संशोधन किया जा सकता है। इसलिए इस विषय पर यहाँ मैं कुछ विचारणीय बिंदु रख रहा हूँ, जिस पर आप गौर कर सकते हैं।
सभी पाठकों से अनुरोध है कि वे इस उत्तर को पूरा पढ़े और अपने प्रतिभाव अवश्य दें।
जब किसी व्यक्ति का विवाह होता है और विवाह के पश्चात उसके जीवन में कुछ ऐसी अच्छी या बुरी घटनायें घटित होती हैं, जिनके होने की संभावना उस व्यक्ति को या उसके परिवार को पहले नहीं होती; तो वे यही सोचते है कि उसकी पत्नी के भाग्य से उसके जीवन में यह हुआ। इसका साधारण अर्थ यह हुआ की विवाह-संबंध में बंधने से पति-पत्नी का भाग्य एक-दूसरे से जुड़ जाता है और इसलिए दोनों को एक-दूसरे के इस जन्म के कर्मों के परिणाम के साथ-साथ पिछले जन्मों के संचित कर्मों के परिणाम (भाग्य) को भी आपस में मिल-बाँटकर भुगतना होता है।
यह बात सिर्फ पति-पत्नी पर ही लागु नहीं होती; यह बात सभी प्रकार के साहचर्य, संगति व युति पर लागु होती है। अगर कोई व्यक्ति बिना विवाह किए, किसी के साथ शारीरिक संबंध बनाता है तब भी वे दोनों एक-दूसरे के भाग्य-कर्मों के परिणाम के कुछ हद तक सहभागी बनते हैं।
जब कोई सुशील, प्रामाणिक व्यक्ति बुरे मित्रों की संगत में फंसता है, तब उसे अपने बुरे मित्रों के कर्मों का परिणाम भी कुछ हद तक भुगतना पड़ता है।
उसी प्रकार, जब कोई व्यक्ति, किसी कंपनी में नौकरी करता है, तब वह व्यक्ति, उस कंपनी के और कंपनी के मालिक के कर्मों और भाग्य के परिणाम में भी सहभागी बनता है। इसलिए कभी-कभी एक प्रामाणिक व्यक्ति को भी अपनी कंपनी या मालिक के धोखाधड़ी वाले कर्मों का फल भुगतना पड़ता है और इसके पीछे उस व्यक्ति के पिछले जन्मों के कर्मों का भी असर होता है।
हम सब अपने पिछले जन्मों के कर्मों के कारण ही इस जन्म में विभिन्न व्यक्तियों के साथ पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, आध्यात्मिक इत्यादि संबंधों में बंधते हैं और एक-दूसरे के कर्मों और भाग्य के परिणामों में सहभागी बनते हैं।
इसी प्रकार, जब किसी व्यक्ति (क) को किसी अन्य व्यक्ति (ख) के हाथों का प्रत्यारोपण किया जाता है, तब "क" को "ख" के कुछ संचित कर्मों के परिणाम में सहभागी बनने का अवसर मिलता है ("ख" की हस्तरेखाओं के प्रभाव से) और "ख" के हाथों से जब "क" कोई कर्म करता है तो उस कर्मों के परिणामों में "ख" भी अगले जन्म में सहभागी बनता है।
इस प्रकार, अंग प्रत्यारोपण से भाग्य-प्रत्यारोपण का सर्व श्रेष्ठ उदहारण है - पार्वती-पुत्र, गजानन, चारुकर्ण, वक्रतुण्ड, गणेश जी।
शायद कुछ पाठकों को इस रहस्य का पता नहीं होगा कि गणेश जी का सिरच्छेद होना और फिर उन्हें हाथी का मस्तक प्राप्त होना - इसके पीछे बहुत बड़ा रहस्य और भाग्य प्रत्यारोपण का खेल था।
गणेश पुराण में बताया गया है कि नारद मुनि के द्वारा जब यह प्रश्न पूछा गया कि गणेशजी को गज का ही मुख क्यों लगा तो भगवान नारायण ने इसका रहस्य बताया। भगवान नारायण ने बताया कि पाद्म कल्प में एक समय देवराज इंद्र पुष्पभद्रा नदी के तट पर टहल रहे थे। उस निर्जन वन में कोई जीव जंतु नहीं था। संयोगवश रंभा नामकी अप्सरा उस समय वन में आराम कर रही थी। देवराज इंद्र ने जब रंभा को देखा तो उनके मन में काम भाव जागृत हो गया। दोनों एक-दूसरे को आकर्षित होकर देख रहे थे। संयोगवश, उस वन में दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ बैकुंठ से होकर लौट रहे थे। देवराज इंद्र ने जैसे ही दुर्वासा ऋषि को देखा तो सकुचा गए और तुरंत ही प्रणाम किया। दुर्वासा ने आशीर्वाद स्वरूप भगवान विष्णु द्वारा प्राप्त पारिजात पुष्प देवराज इंद्र को दे दिया और कहा यह पुष्प जिसके मस्तक पर होगा वह तेजस्वी, परम बुद्धिमान होगा। देवी लक्ष्मी की उस पर कृपा रहेगी और वह भगवान विष्णु के समान ही पूजित होगा। लेकिन देवराज ने पुष्प का अनादर किया और उसे अपने हाथी ऐरावत के सिर पर रख दिया। ऐसा करते ही देवराज इंद्र का तेज समाप्त हो गया। अप्सरा रंभा भी इंद्र को छोड़कर चली गई। हाथी ऐरावत मतवाला होकर इंद्र को छोड़कर चला गया। वन में एक हथिनी ऐरावत पर मोहित हो गई और उसके साथ रहने लगी। ऐरावत अपने मद में वन के प्राणियों को पीड़ित करने लगा।
दूसरी ओर, गणेशजी के जन्म के बाद जब सभी देवी-देवता उनके दर्शन के लिए कैलाश पहुंचे। तब शनिदेव भी वहां पहुंचे, लेकिन उन्होंने बालक गणेश की ओर देखा तक नहीं। माता पार्वती ने इसका कारण पूछा तो शनिदेव ने बताया कि मुझे मेरी पत्नी ने श्राप दिया है कि मैं जिस पर भी दृष्टि डालूंगा, उसका अनिष्ट हो जाएगा। इसलिए मैं इस बालक की ओर नहीं देख रहा हूं। तब माता पार्वती ने शनिदेव से कहा कि यह संपूर्ण सृष्टि तो ईश्वर के अधीन है। बिना उनकी इच्छा से कुछ नहीं होता। अत: तुम भयमुक्त होकर मेरे बालक को देखो और आशीर्वाद दो। माता पार्वती के कहने पर जैसे ही शनिदेव ने बालक गणेश को देखा तो उसी समय उस बालक का सिर धड़ से अलग हो गया। बालक गणेश की यह अवस्था देखकर माता पार्वती विलाप करने लगी।
उधर ऐरावत के मद को कम करना था और इधर माता पार्वती और गणेश जी की अवस्था को सही करना था और साथ में दुर्वासा मुनि के जो वरदान ऐरावत को मिले थे, उसका भी संसार के लिए सदुपयोग करना था। इसलिए भगवान विष्णु ने ऐरावत का सिर काटकर गणेशजी के धड़ से लगाया और पारिजात पुष्प को प्राप्त वरदान गणेशजी को मिला।
इस प्रकार, अंग प्रत्यारोपण और उसके द्वारा भाग्य-प्रत्यारोपण का अति विशेष घटनाक्रम घटित हुआ और शनि देव की द्रष्टि के कारण सिरच्छेद होना भी गणेश जी के लिए वरदान-प्राप्ति का कारण बना। भाग्यविधाता परमात्मा की लीला अपरंपार है।
ॐ गं गणपतये नमः। हरि ॐ । ॐ उमा-सहित शिवाय नमः ।