श्रीमद् भगवद्गीता में ज्ञानकिसी भी मनुष्य को सत् की प्राप्ति हेतु एक विशेष स्थिति तक पहुंचने की बात कही गई है। मनुष्य को स्थितप्रज्ञता की एक विशेष अवस्था पर पहुंचने के लिए कहा गया है। गीता के अध्याय 4 के श्लोक 40 में भगवान संशय में रहने वालों के विनष्ट हो जाने की बात कहते हैं। भगवान कहते हैं कि‘संशयात्मा विनश्यति’ अर्थात जो संशय में है वो विनाश को उपलब्ध हो जाता है।
श्री मद् भगवद् गीता, अध्याय 2,श्लोक 54 से 72
अर्जुन का संशय और भगवान द्वारा अर्जुन को स्थितप्रज्ञता होने का उपदेश :
अर्जुन लगातार मोह और भ्रम की स्थिति में युद्ध की आवश्यकता और परिणामों को लेकर संशय करता आ रहा है । अर्जुन गीता के अध्याय 1 के श्लोक 29 से ही संशय करना शुरु कर देता है। उसका शरीर शिथिल होने लगता है, उसकी बुद्धि भ्रमित होने लगती है। अर्जुन युद्ध से पलायन की घोषणा कर देता है। तब भगवान अर्जुन को सत् के सिद्धांत से अवगत कराते हैं और कहते हैं कि कोई किसी को नहीं मारता , सभी उसी अविनाशी सत् के अंश हैं जो नित्य और सनातन है। भगवान अर्जुन को युद्ध में वापस खड़ा होने के लिए कहते हैं और कर्मयोग का सिद्धांत बताते हैं। लेकिन अर्जुन का संशय अभी तक खत्म नहीं हुआ है।
समत्व बुद्धि से कर्म करने का उपदेश :
भगवान अर्जुन को अध्याय 2 के श्लोक 48 में समबुद्धि की अवस्था को प्राप्त कर कर्मयोग करने का उपदेश देते हैं-
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥2.48॥
yōgasthaḥ kuru karmāṇi saṅgaṅ tyaktvā dhanañjaya.
siddhyasiddhyōḥ samō bhūtvā samatvaṅ yōga ucyatē৷৷2.48৷৷
अर्थः- धनंजय! योग में स्थित हो, अपनी आसक्ति को त्याग कर, तथा सिद्धि और असिद्धि में सम होकर, तू कर्म कर । इस समता का नाम ही योग है।
भगवान अर्जुन के मोह और भ्रम से युक्त संशयात्मक स्थिति को जानते हैं इसलिए वो अर्जुन को गीता के अध्याय 2 के श्लोक 52 में कहते हैं कि –
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥2.52॥
yadā tē mōhakalilaṅ buddhirvyatitariṣyati.
tadā gantāsi nirvēdaṅ śrōtavyasya śrutasya ca৷৷2.52৷৷
अर्थः- जब तेरी बुद्धि मोह रुपी कीचड़ या दलदल को पार कर जाएगी, तब तू पहले सुने हुए और भविष्य में सुनने में आने वाले फलों या भोग से वैराग्य प्राप्त कर लोगे।
भगवान गीता के अध्याय 2 के श्लोक 53 में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि मेरे उपदेश को सुन कर अपनी बुद्धि को स्थिर करो, तभी तुम कर्मयोगी बन पाओगे।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥2.53॥
śrutivipratipannā tē yadā sthāsyati niścalā.
samādhāvacalā buddhistadā yōgamavāpsyasi৷৷2.53৷৷
अर्थः- मेरे द्वारा सुने गए उपदेश से भली भांति प्रपन्न हुई तेरी बुद्धि जब अचल होकर मन (यानि समाधि) में निश्चल भाव से ठहर जाएगी तब तू योग को प्राप्त होगा।
भगवान यहां स्पष्ट रुप से कह रहे हैं कि जब तक बुद्धि स्थिर और अचल नहीं होगी किसी भी कर्म को तू निश्तयात्मक बुद्धि से नहीं कर पाएगा और हमेशा संशय में रहेगा ।
स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण :
अर्जुन उवाच-
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥2.54॥
sthitaprajñasya kā bhāṣā samādhisthasya kēśava.
sthitadhīḥ kiṅ prabhāṣēta kimāsīta vrajēta kim৷৷2.54৷৷
अर्थः- अर्जुन बोले- हे केशव ! समाधि में स्थित स्थितिप्रज्ञ पुरुष के क्या लक्षण हैं, वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
व्याख्याः- अर्जुन यहां भगवान को ‘केशव’ के नाम से संबोधित कर रहा है । केशव का अर्थ होता है जो क्लेशो को हर लें। केशव नाम का संधि विच्छेद ‘क’ तथा ‘ईश’ है। ‘क’ यानि ब्रह्मा और ‘ईश’ यानि शिव। अर्थात जो अपने भीतर ब्रह्मा और शिव दोनों को धारण करे वही केशव हैं।
स्वयं भगवान शिव ने स्कंद पुराण में ‘केशव’ नाम को पारिभाषित करते हुए कहा है –
क इति ब्रह्म्णो नाम इशोहं सर्वदेहिनाम ।
आवां तवांगेसम्भूतौ तस्मात् केशव नामवान् ।।
अर्थः- ‘क’ यह ब्रह्मा का नाम है और सब देहों वालों का ‘ईश’ अर्थात मैं शिव हूं। हम दोनों देव आपके अंग में रहते हैं,इसीलिए आपका नाम केशव है।
अर्जुन के चार प्रश्न :
अर्जुन भगवान केशव से इस श्लोक में चार प्रश्न करता है –
- समाधिस्थित स्थितिप्रज्ञ पुरुष की क्या भाषा अर्थात लक्षण है?
- समाधिस्थित स्थितिप्रज्ञ पुरुष कैसे बोलता है?
- समाधिस्थित स्थितिप्रज्ञ पुरुष कैसे बैठता है?
- समाधिस्थित स्थितिप्रज्ञ पुरुष कैसे चलता है?
स्थितिप्रज्ञता क्या होती है?
भारतीय संप्रदायों में मन और बुद्धि को स्थिर किए बिना उच्चतम स्थिति की प्राप्ति को असंभव माना गया है। बुद्धि जब स्थिर हो जाती है तभी ईश्वर या सत् या परमात्मा या परमतत्व का साक्षात्कार या अनुभव संभव माना गया है स्थितिप्रज्ञता वह स्थिति है जब आप संसार में रह कर भी खुद को उससे निरपेक्ष कर लेते हैं। आप एक प्रकार से संसार को वैसे ही देखते हैं जैसे कोई दर्शक खेल को देखता है , लेकिन खुद खेल का भागी नहीं बनता ।
स्थितिप्रज्ञता और बौद्ध धर्म में साक्षी भाव :
बौद्ध धर्म में बुद्धि को स्थिर करने के लिए आष्टांग मार्गों का वर्णन किया गया है जिसमें सम्यक दृष्टि को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। सम्यक दृष्टि अर्थात सभी वस्तुओं, प्राणियों और स्थितियों के दौरान अपनी बुद्धि और मन को अचल रखना होता है। सम्यक दृष्टि जिसे प्राप्त हो जाती है वो साक्षी भाव को उपलब्ध हो जाता है।
बौद्ध धर्म में साक्षी भाव और गीता में स्थितिप्रज्ञता दोनों एक ही स्थिति को बताते हैं जब मनुष्य लाभ- हानि, सुख- दुख , जय- पराजय, लोभ-मोह , राग- विराग सभी स्थितियों से परे हो जाता है और संसार को निर्लिप्त भाव से देखता है। संसार के प्रति उसका कोई भी लगाव या जुड़ाव नहीं रहता है। वो कमल की भांति कीचड़ से निकल कर भी संसार रुपी कीचड़ से अलग हो जाता है ।
बौद्ध धर्म में सम्यक दृष्टि के द्वारा प्राप्त साक्षी भाव की स्थिति के बिना निर्वाण की प्राप्ति वैसे ही नहीं हो सकती जैसे स्थितिप्रज्ञता की स्थिति को प्राप्त किए बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
समाधि क्या है :
स्थितिप्रज्ञता की अगली उच्च स्थिति का नाम समाधि है । जब हम संख्यात्मक और द्वैतात्मक द्वंद्व से उपर उठ जाते हैं और निरपेक्ष हो जाते हैं, तब हम अपनी बुद्धि और मन को अविनाशी सत् में स्थित कर लेते हैं। स्थिर मन की इसी उच्च अवस्था का नाम समाधि है।
समाधि दो प्रकार की होती है। पहली ‘सविकल्प समाधि’ और दूसरी ‘निर्विकल्प समाधि।‘ सविकल्प समाधि में हमारे मन में स्थित सत् का परम सत् के साथ साक्षात्कार होता है, लेकिन हमारी चेतना बनी रहती है और हम वापस अपनी पूर्व और सामान्य दैहिक और मानसिक अवस्था में लौट जाते हैं।
निर्विकल्प समाधि की स्थिति में हमारे मन में स्थित सत् का परम सत् के साथ विलय हो जाता है और हम मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। जन्म मरण के बंधन से मुक्त होकर हमारे अंदर स्थित सत् का परमसत् के साथ विलय होना ही मोक्ष कहलाता है।
स्थितिप्रज्ञता के लिए आवश्यक है कामनाओं का त्याग :
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥2.55॥
prajahāti yadā kāmān sarvān pārtha manōgatān.
ātmanyēvātmanā tuṣṭaḥ sthitaprajñastadōcyatē৷৷2.55৷৷
अर्थः- भगवान कहते हैं – हे पार्थ ! मन से उसी में तुष्ट साधक जब सभी मनोगत कामनाओं को पूर्ण रुप से त्याग देता है, तब वह स्थितिप्रज्ञ कहा जाता है ।
व्याख्याः- यहां ‘आत्मना’ पद मन अर्थात स्वयं का वाचक है।भगवान यहां कह रहे हैं कि जो पुरुष अपने मन या स्वयं को स्वयं अर्थात मन में स्थिर कर लेता है या तुष्ट कर लेता तो वो अपनी सभी सांसारिक कामनाओं का त्याग कर देता है क्योंकि फिर उसके मन में सिर्फ उसी सत् रुपी तत्व का बोध रहता है । ऐसी स्थिति में वो स्थिर हो जाता है और सिर्फ अपने अंदर स्थित सत् के प्रति ही केंद्रित रह जाता है, ऐसी स्थिति को ही स्थितिप्रज्ञ कहा गया है।भगवान यहां अर्जुन के पहले प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं । अर्जुन ने पूछा था कि स्थितिप्रज्ञ पुरुष के क्या लक्षण हैं। भगवान अर्जुन को स्थितिप्रज्ञ पुरुष के लक्षण बता रहे हैं।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥2.56॥
duḥkhēṣvanudvignamanāḥ sukhēṣu vigataspṛhaḥ.
vītarāgabhayakrōdhaḥ sthitadhīrmunirucyatē৷৷2.56৷৷
अर्थः- दुःखों में उद्वेगरहित मन वाला, सुख में स्पृहारहित और राग- भय और क्रोध से रहित मुनि स्थिर बुद्धि का कहलाता है।
व्याख्याः- भगवान यहां अर्जुन को स्थिर बुद्धि वाले पुरुष के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि वह पुरुष जिसने अपने मन को अपने मन के अंदर स्थित सत् के भाव से जोड़ लिया वो समस्त कामनाओं से मुक्त हो जाता है और स्थिर बुद्धि का हो जाता है। ऐसा पुरुष न तो दुःख में व्यथित होता है, न सुख में लिप्त होता है , न उसे किसी के प्रति मोह या राग होता है और न किसी के विछोह का भय होता है, वह मनुष्य स्थिर बुद्धि हो जाता है और मौन धारण करने वाला मुनि कहलाता है।
भगवान इस श्लोक में अर्जुन के दूसरे प्रश्न का विस्तार से उत्तर दे रहे हैं कि स्थितिप्रज्ञ पुरुष क्या बोलता है। भगवान कहते हैं कि स्थितिप्रज्ञ पुरुष की भाषा मौन हैं इसलिए वो मुनि है। भगवान अध्याय 10 के श्लोक 38 में कहते हैं -मौनं चैवास्मि गुह्रानां अर्थात गोपनीय भावों में मैं मौन हूं। मौन वह आतंरिक भाव से जिसमें समस्त कामनाओं के ज्वार शांत हो चुके होते हैं और मन के अंदर किसी भी तरह के कोई विचार या संवाद नहीं चल रहे होते हैं।
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